Namaskaram, I hope you all are healthy and doing well in your life.
The topic we are going to discuss today is religion. We all keep thinking about religion. Someone talks about one's own religion or someone talks about another's religion. Discussions continue on someone's wrongdoing. There is no one among us who does not consider religion.
But what exactly is religion? Have we ever understood religion fundamentally?
Religion here refers not to religious texts or beliefs, but to our duties. You must have experienced that as soon as we ask a question on someone, then the person in front immediately says that they should follow their religion first and then raise a question mark on someone. That is, he wants to say that first do your work properly and then accuse others of not working.
We often demand each other not to live up to his religion without knowing what religion really is? How much and what role does he play in our lives? What religion does a person have towards society? Or what religion does a husband and wife have towards each other? Or what religion does a son and father have towards each other? Or how many forms of religion can there be?
Although there are many aspects of religion, but the most important thing about religion is that religion talks about making everyone responsible. Therefore, whoever is in this world has his own religion. To understand this, let us take some examples - such as the religion of the tree is to provide shade, fruit and pure air (vital oxygen). The religion of the river is to flow as a living water. Rain is the religion of clouds. The religion of the Sun is to provide light and energy.
Similarly, the religion of man is to be lending and virtuous. That is, the only religion of man is the behavior of generosity towards the mere creature. That is why virtue is given more importance than karma in India. That is why religion is our virtue, because virtue includes karma, religion, policy and knowledge.
By the way, there are many forms and types of religion. But basically religion makes us realize humanity. Even going on our own religion, suffering is tenacity and life. Because religion is not just about a particular book or the instructions mentioned in it, but good behavior, virtue. So everything that we do, which does not harm anyone, which includes the interest of the whole world, is called religion.
Maharishi Vyas Muni has said in his verse -
संक्षेपात् कथ्यते धर्मो जनाः किं विस्तरेण वः।परोपकारः पुण्याय पापाय पर-पीडनम्।।Sanchhepaat Kathyate Dharmo Janah kim vistren vah,Paropkarah Punyay Papay Par-Peednamm.
Sanchhepaat Kathyate Dharmo Janah kim vistren vah,
Paropkarah Punyay Papay Par-Peednamm.
That means, O men! In short, we tell you the essence of religion. To do charity is virtue and religion. And to torment others is sin.
In the end, you are requested to meditate, contemplate and ponder over it.
Thankyou!
Other Articles You May Like:
धर्म पर आध्यात्मिक विचार | मानवता का धर्म
नमस्कार, मुझे आशा है कि आप सभी स्वस्थ होंगे और अपने जीवन में अच्छा कर रहे होंगे।
आज हम जिस विषय पर चर्चा करने वाले हैं वो है धर्म। धर्म के विषय में हम सब विचार करते रहते हैं। कोई अपने ही धर्म के विषय में बात करता है या कोई अन्य के धर्म के विषय में विचार करता है। किसी के अधर्म को लेकर चर्चाएं होती ही रहती हैं। हम में से कोई भी ऐसा नहीं है जो धर्म के विषय पर विचार ना करता हो।
किंतु वास्तव में धर्म क्या है? क्या कभी हम धर्म को मूल रूप से समझ पाए हैं? यहां धर्म का तात्पर्य धार्मिक ग्रंथों या मान्यताओं से नहीं, बल्कि हमारे कर्तव्यों से है। आपने यह अनुभव अवश्य किया होगा कि जैसे ही हम किसी पर कोई प्रश्न करते हैं तब सामने वाला व्यक्ति तुरंत ही कहता है कि पहले अपना धर्म निभाओ उसके बाद किसी पर प्रश्नचिन्ह उठाना। अर्थात वो कहना चाहता है कि पहले अपना काम ठीक से करो फिर दूसरों पर कार्य न करने का आरोप लगाओ।
हम अक्सर एक-दूसरे पर उसके धर्म पर खरे ना उतरने की मांग करते हैं बिना ये जानें कि धर्म वास्तव में क्या है? उसकी हमारे जीवन में कितनी और क्या भूमिका है? एक व्यक्ति का समाज के प्रति क्या धर्म होता है? या एक पति तथा पत्नी का एक-दूसरे के प्रति क्या धर्म होता है? या एक पुत्र तथा पिता का एक-दूसरे के प्रति क्या धर्म है? या धर्म के कितने स्वरूप हो सकते हैं?
वैसे तो धर्म के अनेक पहलू हैं लेकिन सबसे खास बात धर्म की ये है कि धर्म सबको जिम्मेदार बनाने की बात करता है। इसलिए जो कोई भी इस संसार में है उसका अपना एक धर्म होता है। इसे समझने के लिए चलिए हम कुछ उदाहरण लेते हैं-जैसे पेड़ का धर्म है छाया, फल तथा शुद्ध वायु (प्राण दायनी ऑक्सीजन गैस) प्रदान करना। नदी का धर्म है जीवनदायी जल बनकर बहते रहना। बादलों का धर्म है जल बरसाना। सूर्य का धर्म है प्रकाश तथा उर्जा प्रदान करना।
इसी प्रकार मनुष्य का धर्म है उधार तथा सदाचारी होना। अर्थात मनुष्य का एकमात्र धर्म है, प्राणी मात्र के प्रति उदारता का व्यवहार। इसीलिए भारत में कर्म से अधिक महत्व सदाचार (virtue) को दिया गया है। इसलिए हमारा सदाचारी होना ही धर्म है, क्योंकि सदाचार में कर्म, धर्म, नीति तथा ज्ञान सब शामिल है।
वैसे तो धर्म के कई स्वरूप तथा प्रकार होते हैं। परंतु मूल रूप से धर्म हमें मानवता का बोध कराता है। यहां तक की अपने धर्म पर चलते हुए कष्ट सहना ही तप और जीवन है। क्योंकि धर्म का आशय केवल किसी पुस्तक विशेष या उसमें अंकित निर्देशों से नहीं बल्कि सदव्यवहार, सदाचार से है। तो हर वो चीज जो हम करते हैं,जिससे किसी का भी अहित ना हो, जिसमें समस्त संसार का हित सम्मिलित हो, उसे ही धर्म कहा जाता है।
महर्षि व्यास मुनि ने अपने श्लोक में कहा है-
संक्षेपात् कथ्यते धर्मो जनाः किं विस्तरेण वः।परोपकारः पुण्याय पापाय पर-पीडनम्।।
अर्थात हे मनुष्यों! संक्षेप में हम तुम्हें धर्म का सार बताते हैं। परोपकार करना ही पुण्य कर्म तथा धर्म है। और दूसरों को पीड़ा देना ही पाप अर्थात अधर्म है।
अंत में आपसे निवेदन है कि आप इस पर मनन, चिंतन, तथा विचार अवश्य कीजिएगा।